कोविड-19 बेहद करीब से जुड़े इस विश्व का पहला विकट संकट है। चीन के वुहान शहर में यह स्थानीय बीमारी के रूप में शुरू हुआ और कुछ हफ्तों में ही पूरी दुनिया में फैल गया। कोरोना संक्रमण के 10 लाख से भी अधिक मामले देखे गए हैं और 1 लाख से भी ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। फिलहाल इसका कोई इलाज या टीका नहीं होने के कारण यह महामारी की शुरुआत ही है। अगले कुछ महीनों में इससे और भी विनाश होने की आशंका है।
रोजाना हजारों लोगों को शिकार बनाने के अलावा कोरोनावायरस संकट का सबसे स्पष्ट प्रभाव समूची दुनिया में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उथलपुथल के रूप में नजर आया। वायरस चुटकियों में पूरी दुनिया में फैल गया। यात्रियों ने विमान यात्राएं बंद कर दीं, दुनिया भर में पर्यटन थम गया और मनोरंजन जैसे संबंधित उद्योग भी कुछ हफ्तों में ही बंद हो गए। देश अपने आप में सिमट गए। उन्होंने अपनी सीमाएं बंद कर लीं और जनता के आवागमन पर ढेरों प्रतिबंध लगा दिए। कोरोनावायरस ने वैश्वीकरण को करारा झटका दिया है।
वायरस संकट का वैश्विक प्रभाव बहुत ज्यादा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के मुताबिक वैश्विक अर्थव्यवस्था में पहले ही मंदी आ चुकी है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का अनुमान है कि लगभग 1.25 अरब कामगार यानी वैश्विक श्रमबल का लगभग 38 प्रतिशत हिस्से के रोजगार पर संकट आ गया है क्योंकि वे सभी परिवहन, मनोरंजन, खेल, विनिर्माण, खुदरा, निर्माण जैसे उद्योगों में कार्यरत हैं, जो पूरी तरह ठप हो गए हैं। दुनिया भर के शेयर बाजार बैठ गए हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाले तेल उद्योग के सामने पिछले 100 वर्षों का सबसे गंभीर संकट खड़ा हो गया है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने से और विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में बाधा पड़ने से इतनी नौकरियां जाएंगी, जितनी पहले कभी नहीं गईं। 2008-09 के वित्तीय संकट, 11 सितंबर के आतंकी हमले, 1997 के एशियाई वित्तीय संकट, 1991 में सोवियत संघ के विघटन जैसे पिछले संकटों के मुकाबले कोरोनावायरस का संकट अधिक बड़ा और गहरा है। इसके सही-सही असर का अंदाजा लगाना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन कुछ बातें पहले ही नजर आने लगी हैं।
अमेरिका और अग्रणी यूरोपीय देशों को वायरस की सबसे तगड़ी मार झेलनी पड़ी है। अमेरिका और यूरोप में ही सबसे ज्यादा लोग इसके शिकार बने हैं। वे इसके प्रकोप से निपटने के लिए ठीक तरीके से तैयार नहीं थे। अमेरिका के मुकाबले चीन में संक्रमण और मौत के बहुत कम मामले देखे गए। उनमें से कई देश संकट के समय चीन से मदद मांगने लगे। चीन ने संकट का फायदा उठाते हुए खुद को जरूरत के समय दुनिया का रक्षक बनाकर पेश किया। कई लोग इस बात से असहमत होंगे, लेकिन चीन का प्रचार तंत्र चीन की नरम छवि प्रचारित करने में लगा हुआ है।
शीत युद्ध समाप्त होने के बाद से ही बहुध्रुवीय विश्व तैयार होने लगा था। डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्द्धा तीव्र तकनीक एवं व्यापार युद्ध की शक्ल में सामने आया है और तेज होता जा रहा है। कोरोनावायरस के बाद की दुनिया में आपसी तनाव और बढ़ सकता है। अमेरिका ने पहले ही कोविड-19 को “चाइना वायरस” कहकर इस संकट की तोहमत चीन पर जड़ दी है। चीन ने इन आरोपों का पुरजोर विरोध किया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वायरस पर चर्चा कराने के अमेरिकी प्रयास को चीन ने विफल कर दिया है। आगामी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप की संभावनाएं अनिश्चितता में घिर गई हैं। पहले बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव और अब कोरोनावायरस संकट के बल पर चीन दुनिया में अपना प्रभाव और बढ़ाने की उम्मीद कर सकता है। हालांकि यह सवाल ही है कि ऐसा होगा या नहीं।
कोरोनावायरस संकट ने एक बार फिर बहुपक्षवाद की कमजोरियां उजागर कर दी हैं। जब से संकट गहराया है, अंतरराष्ट्रीय सहयोग सबसे कमजोर रहा है। ज्यादातर देश अपने ही भरोसे हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद तो संकट पर चर्चा ही नहीं कर सकी। विश्व स्वास्थ्य संगठन विवादों में घिरा है क्योंकि अमेरिका ने इसके महानिदेशक पर चीन के प्रति नरम रवैया अपनाने का आरोप लगा दिया है। जी-20 देशों ने एकजुट होकर कुछ भी नहीं किया। विश्व व्यापार संगठन पिछले कई वर्षों से गहरे संकट में है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी आने के आईएमएफ के अनुमान से बुरी तरह घबराहट फैल गई है। लाखों नौकरियों पर तलवार लटकने के आईएलओ के अनुमानों से घबराहट और भी बढ़ गई है।
ऐसा नहीं है कि बहुपक्षवाद के बेकार होने का खटका बिल्कुल भी नहीं था। अंतरराष्ट्रीय सहयोग की बातें हर कोई करता है, लेकिन अधिकतर बड़े देश ‘पहले मैं’ की नीति पर चलते हैं। कोरोना के बाद की दुनिया में राष्ट्रवाद या अतिराष्ट्रवाद बढ़ने की अपेक्षा की जा सकती है। क्षेत्रीय संगठन भी सक्रिय नहीं दिखे। इटली के प्रधानमंत्री ने चेतावनी दी ळै कि संकट के समय यूरोपीय संघ की निष्क्रियता से यूरोपीय परियोजना खत्म हो सकती है। यूरोपीय संघ का 500 अरब यूरो का पैकेज बहुत देर में आया है और बहुत कम है।
दुनिया को नौकरियां बचाने, अर्थव्यवस्था के संकट में पड़े क्षेत्रों को बढ़ावा देने और सबसे गरीब तथा वंचित तबकों की आजीविका की समस्या हल करने के लिए वैश्विक योजना की जरूरत है। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है। चर्चा तक नहीं हो रही है। कई देशों ने आपात ऋण के लिए आईएमएफ से गुहार लगाई है। संकट कई देशों की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बिठा देगा। इससे व्यापक अशांति और अस्थिरता फैल सकती है।
अंधाधुंध उपभोक्तावाद पर आधारित पूंजीवादी मॉडल की फिर छानबीन की जाएगी। बेकाबू वैश्वीकरण के कारण राष्ट्रों के बीच और देशों के भीतर बहुत अधिक असमानता फैल गई है। वैश्वीकरण का जोर संपदा के सृजन पर है उसके वितरण पर नहीं। अंधाधुंध उपभोक्तावाद टिकने वाला नहीं था क्योंकि इसके कारण जलवायु परिवर्तन तेज हो गया और पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा था। बार-बार प्राकृतिक आपदाएं आने से एक के बाद एक देश बरबाद होते रहे, लेकिन टिकाऊ वृद्धि के व्यावहारिक उपायों पर बहुत कम विचार किया गया है। जैवविविधता को सोचे-समझे बगैर बरबाद करने से मानव जाति का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। मनुष्य और जंतुओं के बीच घनिष्ठता के कारण जन्मे कोरोनावायरस ने विकास के उपभोक्तावादी मॉडल की कमजोरी उजागर कर दी है। कोविड-19 के बाद की दुनिया में राष्ट्रवाद भी जोर पकड़ेगा। देश एक बार फिर सीमाओं पर नियंत्रण बढ़ा सकते हैं, जिसका मुक्त हवाई यात्रा और मुक्त व्यापार पर असर पड़ेगा।
अमेरिका ने अफगान युद्ध, इराक युद्ध, 11 सितंबर और खाड़ी युद्ध में हुए नुकसान से अधिक नुकसान कोरोनावायरस के कारण उठाया है। वह सुरक्षा पर हर वर्ष सैकड़ों अरब डॉलर खर्च करता है मगर उसका स्वास्थ्य तंत्र खस्ता है। वायरस ने दिखाया है कि स्वास्थ्य सुरक्षा अहम है बल्कि पारंपरिक खांटी सैन्य सुरक्षा से भी अधिक अहम है। इसीलिए देश सुरक्षा को व्यापक विचार मानने के लिए बाध्य होंगे, जिसमें अपारंपरिक सुरक्षा मसलों को अधिक अहमियत दी जाएगी क्योंकि वे ज्यादा नुकसान कर सकते हैं। कोरोनावायरस के कारण जैव आतंकवाद पर फिर चर्चा होने लगी है।
बेहद करीब से जुड़ी दुनिया में विनिर्माण लंबी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर निर्भर करता र्था उनमें से अधिकतर श्रृंखलाएं चीन से होकर आती थीं। चीन से गुजरने वाली लंबी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर निश्चित रूप से विचार होगा। छोटी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर जोर होगा। देश कई इलाकों में आत्मनिर्भर होने की कोशिश करेंगे। स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण तथा छोटे एवं मझोले उद्योग आदि पर अधिक ध्यान दिया जाएगा। कार्यस्थलों में तब्दीली होंगी, जहां दूर से काम करने को बढ़ावा दिया जाएगा। नए तौर-तरीके शुरू होंगे। आपूर्ति की नई प्रणालियां ईजाद की जाएंगी। शिक्षा एवं स्वास्थ्य आपूर्ति प्रणालियों में क्रांति होगी। यात्रा और परिवहन में आमूल-चूल बदलाव आएगा। दैहिक दूरी यानी सोशल डिस्टेंसिंग सुनने में अच्छा लगती है मगर मनुष्य पर इसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ेगा क्योंकि वह मूलतः सामाजिक प्राणी है। व्यवहार में इतना बड़ा परिवर्तन आसानी से नहीं होगा और उसके परिणाम भी होंगे।
महामारी भारत में अभी तक पांव पसार रही है। सबसे बुरी स्थिति शायद लॉकडाउन हटने पर सामने आएगी। लेकिन कोरोना के बाद की दुनिया के लिए भारतीय सोच के कुछ रुझान पहले ही दिखने लगे हैं।
पहला, यह सोच बढ़ती जा रही है कि भारत को जरूरी कच्चे माल के लिए चीन पर निर्भरता कम करनी चाहिए और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को नजरअंदाज किए बगैर आत्मनिर्भरता एवं स्वदेशी पर आधारित अर्थव्यवस्था तैयार करनी चाहिए। भारत को अपने विनिर्माण क्षेत्र को नए सिरे से तैयार करना और पटरी पर लाना चाहिए क्योंकि पिछले कुछ दशक में देश उसे चीन के हाथ गंवा चुका है।
दूसरा, अपनी विशाल जनसंख्या के साथ भारत के पास स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, स्वच्छ तकनीक, पर्यावरण संरक्षण में भारी संभावनाएं हैं, जिन्हें अभी तक खंगाला नहीं गया है। इसका इस्तेमाल भारत के पुनर्निर्माण में होना चाहिए। भारत के बढ़ते डिजिटल बुनियादी ढांचे का इस्तमाल प्रशासन में अधिक प्रभावी तरीके से किया जा सकता है। भारत को अनुसंधान एवं विकास पर अधिक खर्च करना चाहिए। उसके पास देश के भीतर और पड़ोस में आपूर्ति श्रृंखलाएं तैयार करने का मौका है। विकास का भारतीय मॉडल भारत की वास्तविकताओं एवं सतत विकास के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, जो हमारे सांस्कृतिक विचारों में शामिल हैं।
तीसरा, संकट ने भारत की सामाजिक सुरक्षा व्यवस्थाओं में खामियां उजागर कर दी हैं, जिन पर फौरन काम होना चाहिए। समृद्धि के पिरामिड में सबसे नीचे पड़े समाज के कमजोर तबकों पर इस संकट का सबसे अधिक बोझ पड़ेगा। भारत के पास अब बुनियादी आय, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा आदि के इर्द-गिर्द अपनी सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था खड़ी करने का मौका है।
चौथा, संकट फैलने के साथ कई अन्य देशों के उलट भारत ने वास्तव में अंतरराष्ट्रीय सहयोग का रास्ता अपनाया है। संकट के बीच ठप पड़े दक्षेस को फिर सक्रिय करने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयास की किसी को अपेक्षा नहीं थी। प्रधानमंत्री ने विश्व नेताओं के साथ टेलीफोन पर बातचीत भी की, जिसमें सभी नेताओं ने संकट से निपटने के भारत के प्रयासों की सराहना की और उसका सहयोग भी मांगा। नतीजतन भारत का औषधि क्षेत्र हाइड्रो-क्लोरोक्वीन की गोलियां बनाने तथा पूरी दुनिया को मुहैया कराने के लिए तैयार हो गया है। इस दवा की अमेरिका समेत तमाम देशों से मांग आ रही है। कई देश जरूरत वाले क्षेत्रों में भारत से सहयोग मांग रहे हैं। यही समय है, जब भारत को दूसरे देशों के साथ सार्थक संवाद और सहयोग तेज करना चाहिए और नई विश्व व्यवस्था गढ़ने में मदद करनी चाहिए। भू-राजनीतिक विचार और शक्ति की राजनीति अहम बनी रहेगी मगर भारत को वसुधैव कुटुंबकम, करुणा, टकराव खत्म करने, प्रकृति का सम्मान करने एवं पर्यावरण का ध्यान रखने जैसे विषयों पर आधारित नई विश्व व्यवस्था तैयार करने में मदद करनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के 75वें वर्ष में इन विषयों को सामने रखना चाहिए और उन पर चर्चा होनी चाहिए।
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